भारत की स्वतंत्रता के समय कांग्रेस सत्ता की स्वाभाविक उत्तराधिकारी थी

भारत की स्वतंत्रता के समय कांग्रेस सत्ता की स्वाभाविक उत्तराधिकारी थी। देश का विश्वास उसे हासिल था और इसी के बल पर वह देश के भविष्य से जुड़े तमाम फैसले ले रही थी। द्विराष्ट्र के सिद्धांत को स्वीकार कर उसके आधार पर भारत के बंटवारे का फैसला भी इसमें शामिल था। उसने यह जानने की भी कोशिश नहीं कि देश इससे सहमत है अथवा नहीं। यहाँ तक कि महात्मा गांधी की सहमति लेना भी जरूरी नहीं समझातत्कालीन नेतृत्व की मन:स्थिति का विश्लेषण यदि करें तो पायेंगे कि स्वतंत्रता की संभावना से अभिभूत अधिकांश कांग्रेस नेता पाकिस्तान के निर्माण को गंभीरता से नहीं ले रहे थे। वे यह मान रहे थे कि भावनाओं का यह उफान जल्द ही थम जायेगा और स्थिति सामान्य हो जायेगीवे यह भी मानते थे कि पाकिस्तान की मांग करने वाले नेता 'मूल् के स्वर्ग' में जी रहे हैं। विभाजन स्वीकार करने के बाद भी यह नेता मानते थे कि पाकिस्तान लम्बे समय तक जी नहीं सकेगा और अंततः पूरा भारत एक हो जायेगा। राममनोहर लोहिया जैसे दिग्गज समाजवादी नेता तो अंत तक भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को एक साझा व्यवस्था में लाने की वकालत करते रहे। समय ने साबित किया कि भ्रम में जिन्ना नहीं, भारतीय नेतृत्व था। पाकिस्तान एक कड़वी सच्चाई के रूप में हमारे सामने है जिसने अपना समूचा ताना-बाना भारत विरोध की धुरी के इर्द-गिर्द बुना है।